धारा 370 हटाये जाने और जम्मू कश्मीर पुनर्गठन बिल 2019 पर कांग्रेस का ढुलमुल रवैया और प्रतिक्रिया आश्चर्यजनक था। कांग्रेस में इस बिल को लेकर इतनी दुविधा थी कि कोई भी वक्ता बहुत स्पष्टता और ओज से विरोध या सर्मथन नहीं कर पाया। सोनिया गांधी और राहुल गांधी की चुप्पी भी चौकाने वाली थी जैसे बताना चाहता रहे हो कि उनके बिना पार्टी कैसे काम करने वाली है।
कांग्रेस की स्पष्ट, निश्चित और दृढ पार्टी लाईन नहीं दिखी और इसने जनता से जुड़ने का एक बड़ा मौका गवां दिया। रही सही कसर अधीर रंजन चौधरी के कन्फ्यूजन नें पूरी कर दी। भारतीय राजनीति की थोड़ी भी समझ रखने वाला ये जानता है कि सीमा विवाद द्विपक्षीय मामला है न कि भारतीय काश्मीर का प्रशासन। जब कोई केवल विरोध के लिए विरोध करता है तो ऐसे कुतर्क देता है। जिन्होंने धारा 370 हटाये जाने का विरोध किया उनके पास मजबूत तर्क नहीं थे, जबकि सरकार के पास इसे हटाने के पक्ष में काफी convincing तर्क थे। होना तो ये चाहिए था की जितना भी समय मिला उसमें संसदीय दल मिलकर तय करता कि पार्टी लाइन क्या हो और क्यों हो? कैसे इस मुद्दे को जनता से जुड़ने का एक अवसर बनाया जाय।
पंडित नेहरू महाराजा हरि सिंह के साथ
धारा 370 को तो काँग्रेस सरकारो ने भी धीरे धीरे dilute किया हीं था और कर रहे थे। भारतीय संविधान की आधी से अधिक धारायें जम्मू और कश्मीर में लागू होती थीं । काँग्रेस भी उसी दिशा मे कार्य कर रही थी । इसकी शुरुआत 1954 मे हीं हो गयी थी जब जम्मू और कश्मीर के नागरिकों को भारत की नागरिकता भी दी गयी, राज्य को सुप्रीम कोर्ट के क्षेत्राधिकार मे लाया गया और कस्टम ड्यूटी को हटाया गया। इसक बाद लगभग 40 और प्रेसिडेंशियल ऑर्डर पास किये गये जिनके द्वारा भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधान जम्मू और कश्मीर में लागू हुए। GST बिल भी वहाँ पूरे देश मे लागू होने के एक सप्ताह बाद लागू हो गया।
इस तरह 370 का erosion तो हो ही चुका था। स्वयं नेहरू जी ने इस धारा के शनैः शनैः घिसने की बात कही थी और जिसका जिक्र गृहमंत्री ने भी सदन में किया। अगर कांग्रेस केवल 370 को हटाये जाने के तरीके पर अपना विरोध प्रभावशाली ढंग से करती तो बेहतर होता। इस बिल से काँग्रेस की दुविधा, असमंजस और असुरक्षा सामने आई । ऐसा लगा जैसे ये overconcious हो गई है कि कुछ नुकसान ना कर बैठे इसलिए कोई भी दृढ़ता पूर्ण निर्णय न कर पा रही है।
काँग्रेस को सत्ता से अलग रहने की आदत भी रखनी होगी। क्या राजनीतिक दल सत्ता से अलग होकर अपनी ओज, आवाज और राजनीति भूल जाते है? लोकतंत्र में सत्ता में आना जाना तो लगा हीं रहता है। जब आप सत्ता में नहीं है तो इसे एक अवसर मानकर स्वयं को और निखरने मे लगा जा सकता है। लोगों की समस्याओं को प्रखरता और मुखरता से उठा सकते हैं। भारतीय जनता पार्टी के दो सांसद भी अपनी बात इतनी ओजस्विता और प्रखरता के साथ रखते थे, बावजूद इसके उन्हें सत्ता में आने के लिए 50 वर्ष प्रतीक्षा करनी पड़ी। उस अवधि में वो और मुखर थे।
जो दल सत्ता में होता है वह उतना मुखर नही रह पाता क्योंकि तब जिम्मेदारी और जबाबदेही उसकी होती है और विपक्षी दल प्रश्न पूछने का का करते हैं। लेकिन 5 वर्ष सत्ता मे रहने के बाद भी प्रश्न सत्ताधारी दल पूछ रहा है और विपक्षी दल बचाव की मुद्रा मे रहते हैं। काँग्रेस ऐसा व्यवहार कर रही है जैसे कि परीक्षा में कम नंबर आने पर बच्चा करता है। लोगों के बीच जाने से झिझक रही है। क्या बोलें और किस मुद्दे पर क्या पक्ष रखें? 370 के मुद्दे पर भी पहले कुछ विरोध के स्वर फ़िर प्रतिक्रिया और फ़िर कुछ समर्थंन के स्वर। काँग्रेस को स्वयं पर और उसके अपने विचारधारा पर विश्वास होना चाहिए।
गृहमंत्री संसद में धारा 370 पर चर्चा के दौरान
कांग्रेस का अध्यक्ष कौन हो ये मुद्दा कांग्रेस पार्टी से ज्यादा बीजेपी और मीडिया के चिंता और चिंतन का हो जाता है। जैसे ही ये एक ही परिवार से अध्यक्ष का नारा शुरु करते हैं कांग्रेसी नेताओ मे चुप्पी छा जाती है।क्या इंदिरा गांधी, राजीव गाँधी के समय ये बात नही उठती थी? तब पार्टी को कोई फर्क नही पड़ता था तो अब क्यो? अगर पार्टी कार्यकर्ता, पार्टी के नेता और जनता का विश्वास किसी परिवार में है तो समस्या क्या है? एक बार इस बात पर दृढ़ता और स्पष्टता से बोलकर देखें ये मुद्दा हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। कांग्रेस के नेता कितनी ईमानदारी से नेतृत्व का साथ देते है ये भी सोचने योग्य बात है। कुछ अच्छा हो तो श्रेय पूरी पार्टी को और जहाँ कुछ गड़बड़ हुई तो ठीकरा परिवारवाद पर फुटने देते हैं, कभी बचाव में नहीं आते। शायद ही किसी काँग्रेसी नेता ने, परिवारवाद के आरोप और बीते पांच वर्षों में राहुल गाँधी की जो छवि गढ़ी गई का जोरदार विरोध किया हो। लेकिन अध्यक्ष भी परिवार से हीं चाहिए।
कांग्रेस को चाहिए कि अपनी विचारधारा को लेकर संशय में न रहे लेकिन समय और लोकप्रिय भावना का भी ध्यान रखे। reluctantly मुद्दों का समर्थन या विरोध ना करे। विरोध या समर्थन दृढ़ता से करें। बचाव की मुद्रा में न रहकर आक्रामक मुद्रा मे रहें। NDA को मिलने वाले 45% वोट की चिंता की जगह उसे मिल सकने वाले 55% वोटों की फ़िक्र करें। अभी क्षेत्रीय पार्टीयों की जो स्थिति है उसे कांग्रेस को अपने लिए अवसर के रूप में देखना पड़ेगा। लोग विकल्प की तलाश में हैं, जो उन्हें अभी के कांग्रेस में तो दिखती नहीं है। किसी एक पार्टी को भारी बहुमत देकर सिर पर बिठानेवाला मतदाता भी इस तलाश में रहता है कि इन्हें उतारने की जरूरत हुई तो विकल्प क्या है। छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्यप्रदेश के चुनावों से यह बात साफ होती है। कांग्रेस को विकल्प देने की तैयारी करनी होगी। ये भारतीय लोकतंत्र के लिए बहुत अच्छा रहे यदि दो पार्टी वाली व्यवस्था चल पड़े।
~Rashmi Prabha



Till there is pappu on chair
ReplyDeleteNothing good can happen, mom-son-mom game is being played by them.... There are many more good leaders Amrinder singhji, Sachin Pilot ..... Gandhi name should be in upper list.... 😠😠😠
Congress ka time ayega .....lekin jab Raihan Vadra se Raihan Modi ho jayega
ReplyDeleteVery Good
ReplyDeleteThank you 🙏
DeleteGood analysis!!
ReplyDeleteYou showed the way to that #GrandOldParty, which might lost its confidence. Its really hesitant to go to people. For any political party "#WeThePeople" are source of strength.
The way Gandhi vadra family is giving anti Indian statements on article 370, this shows the kind of mentality this family possess. Totally shameful...even Priyanka Gandhi keeping silence on this matter which is also shameful.. and respect alot a j&k politician (congress mp) karan singh has supported NDA government's decision on j&k.
ReplyDeleteKuchh dino ke liye Congress mukta bharat hoga baad me dekhe kya hota h abhi bjp kuchh bhi kar sakti shah jo home minister h
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